प्रेमचंद की रचनाएं समाज के यथार्थ का दर्पण हैं। उनके उपन्यास जैसे ‘गोदान’, ‘गबन’, और ‘कर्मभूमि’ ग्रामीण भारत की गरीबी, सामाजिक असमानता और शोषण की मार्मिक कहानियां बयान करते हैं। उनकी कहानियां जैसे ‘ईदगाह’, ‘कफन’, और ‘पूस की रात’, मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक विडंबनाओं को उजागर करती हैं। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में दलितों, किसानों और स्त्रियों के दुख-दर्द को आवाज दी, जो उस समय क्रांतिकारी था।
उनका लेखन केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं था, बल्कि सामाजिक सुधार का माध्यम था। प्रेमचंद ने जातिवाद, सामंतवाद और औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ खूब लिखा। उनके द्वारा स्थापित पत्रिका ‘हंस’ और समाचार पत्र ‘जागरण’ ने स्वतंत्रता संग्राम में जनजागृति का कार्य किया। उर्दू में लिखे उनके शुरुआती उपन्यास जैसे ‘बाजार-ए-हुस्न’ भी उनकी लोकप्रियता का प्रमाण हैं।
प्रेमचंद की भाषा सरल, सहज और जनसामान्य की थी, जो पाठकों के दिलों तक सीधे पहुंचती थी। उनकी रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं, क्योंकि वे मानवता और सामाजिक न्याय के सवाल उठाती हैं। साहित्य के साथ-साथ प्रेमचंद का योगदान स्वतंत्रता आंदोलन और प्रगतिशील विचारधारा में भी उल्लेखनीय है। उनकी मृत्यु ने साहित्य जगत में एक शून्य पैदा किया, लेकिन उनकी रचनाएं सदैव हमारे बीच रहेंगी। प्रेमचंद न केवल हिंदी साहित्य के आधार स्तंभ हैं, बल्कि भारतीय चेतना के प्रतीक भी हैं।
और जानिये >>राजेन्द्र यादव (1929-2013) हिंदी साहित्य के उन सशक्त हस्ताक्षरों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल अपनी रचनाओं से साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि सामाजिक चेतना और नवीन विचारों को भी हिंदी साहित्य में स्थापित किया। आधुनिक हिंदी साहित्य में ‘नई कहानी' आंदोलन के प्रमुख स्तंभ रहे राजेन्द्र यादव का जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा में हुआ था। उनकी लेखनी और संपादन ने हिंदी साहित्य को एक नया आयाम दिया।
उनका पहला उपन्यास ‘प्रेत बोलते हैं’ (बाद में ‘सारा आकाश’ के नाम से प्रकाशित) हिंदी साहित्य में उपन्यास विधा के सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में शुमार है। यह उपन्यास मध्यमवर्गीय परिवारों की आंतरिक उथल-पुथल और युवा मन की बेचैनी को बखूबी चित्रित करता है। उनकी अन्य रचनाएं जैसे ‘कुलटा’, ‘शह और मात’ और ‘उखड़े हुए लोग’ सामाजिक यथार्थ, लैंगिक समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रश्नों को उठाती हैं। उनकी कहानियां और निबंध सामाजिक कुरीतियों और पितृसत्तात्मक ढांचे पर तीखा प्रहार करते हैं।
राजेन्द्र दव का सबसे बड़ा योगदान साहित्यिक पत्रिका ‘हंस’ की पुनर्स्थापना करना है। 1986 में उन्होंने प्रेमचंद द्वारा शुरू की गई इस पत्रिका को पुनः स्थापित किया और इसे समकालीन साहित्य का मंच बनाया। उनके संपादन में ‘हंस’ ने स्त्रीवादी, दलित और प्रगतिशील लेखकों को स्थान दिया।
उनकी खुली विचारधारा और सामाजिक मुद्दों पर बेबाक टिप्पणियां कुछ के लिए प्रेरणा थीं, तो कुछ के लिए आलोचना का विषय। फिर भी, उन्होंने हर प्रकार से हिंदी साहित्य को वैश्विक मंच पर ले जाने का प्रयास किया। 2013 में उनके निधन के बाद, उनकी विरासत यानी ‘हंस’ आज भी उन्हीं की रौ में प्रगतिशीलता और आधुनिकता के साथ जीवित है।
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